बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने पिछले हफ़्ते एक इंटरव्यू में कहा कि केंद्र की मोदी सरकार तीसरा कार्यकाल पूरा कर पाएगी या नहीं यह बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे पर निर्भर करेगा.
यानी तेजस्वी यादव का कहना है कि अगर बिहार में एनडीए की हार होती है तो केंद्र में मोदी सरकार का पाँच साल टिकना आसान नहीं होगा.
दरअसल, 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था. बीजेपी 240 सीटों पर ही सिमटकर रह गई थी लेकिन सरकार बनाने के लिए 272 सीटें की ज़रूरत होती है.
ऐसे में मोदी सरकार एनडीए के सहयोगी दलों के समर्थन से चल रही है.
एनडीए के सहयोगी दलों में नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड लोकसभा सीटों के लिहाज से दूसरी बड़ी पार्टी है. जेडीयू के 12 सांसद हैं.
वहीं लोकसभा में सीटों के लिहाज से आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देसम पार्टी (टीडीपी) 16 सीटों के साथ एनडीए में सबसे बड़ा सहयोगी दल है.
बिहार चुनाव का केंद्र सरकार पर असर
नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के बाद एनडीए में चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और एकनाथ शिंदे की शिव सेना है.
इन दोनों पार्टियों के पास क्रमशः सात और पाँच सीटें हैं. इसके अलावा भी कुछ छोटी-छोटी पार्टियां हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को 293 सीटों पर जीत मिली थी यानी बहुमत से फिर भी 21 सीटें ज़्यादा हैं.
अगर जेडीयू मोदी सरकार से समर्थन वापस भी ले लेती है तब भी एनडीए के पास साधारण बहुमत 272 से 9 सीटें ज़्यादा होंगी. यानी सरकार नहीं गिरेगी. यह तभी संभव है, जब एनडीए के कुछ और घटक दल समर्थन वापस लें.
वाक़ई बिहार चुनाव में मोदी सरकार का भविष्य दांव पर लगा है?
टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस में प्रोफ़ेसर रहे पुष्पेंद्र कहते हैं कि ज़ाहिर है सरकार नहीं गिरेगी लेकिन नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर सवाल उठेगा.
पुष्पेंद्र कहते हैं, ''लोकसभा चुनाव के बाद जितने भी विधानसभा चुनाव हुए, उनमें झारखंड को छोड़ दें तो बीजेपी को जीती मिली है. ख़ासकर करके महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी की जीत के बाद नरेंद्र मोदी का तेवर उसी अंदाज़ में हो गया, जैसा 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले थे. ऐसे में अगर बिहार में हारते हैं तो उनकी लोकप्रियता पर सवाल उठेगा.''
पुष्पेंद्र कहते हैं, ''बिहार में हार होती है तो एनडीए के घटक दल तोल-मोल करने की स्थिति में आ जाएंगे. बिहार में नीतीश कुमार कमज़ोर हो चुके हैं, इसके बावजूद बीजेपी के लिए वह मजबूरी हैं. बीजेपी के पास कोई चेहरा फ़िलहाल नहीं है. सम्राट चौधरी को बीजेपी ने आगे करने की कोशिश की लेकिन प्रशांत किशोर ने उनकी उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. सम्राट पर प्रशांत ने जिस तरह के आरोप लगाए हैं, उनका जवाब मुकम्मल तरीक़े से दे नहीं पाए हैं.''
नीतीश का कमज़ोर होना बीजेपी के लिए भी झटकापुष्पेंद्र कहते हैं, ''बिहार में चुनाव हारने पर जेडीयू में टूट हो सकती है. नीतीश कुमार अभी बहुत कुछ संभालने की स्थिति में दिख नहीं रहे हैं. लेकिन मेरा मानना है कि अब बिहार में एनडीए के ख़िलाफ़ बहुत सत्ता विरोधी लहर नहीं है. ख़ास कर कैश ट्रांसफर के बाद चीज़ें बदलती दिख रही हैं.''
राजनीतिक विश्लेषक रिज़वान एहसन मानते हैं कि इस बार बिहार में किसी की लहर नहीं है और कुछ भी एकतरफ़ा नहीं होने जा रहा है.
रिज़वान कहते हैं, ''मुझे लगता है कि बिहार में ऐसा पहली बार होने जा रहा है जब फ्लोटिंग वोटों की अहम भूमिका होगी. असली लड़ाई नीतीश कुमार के वोट बैंक अति पिछड़ा को लेकर है. कांग्रेस इस वोट बैंक को टारगेट कर रही है और तीन से चार पर्सेंट भी कांग्रेस के पक्ष में चला गया तो उसका प्रदर्शन सुधर सकता है.''
बिहार में पिछले 35 सालों से लालू परिवार के साथ नीतीश कुमार और बीजेपी का शासन है. लालू यादव सेहत की वजह से राजनीति में अब बहुत सक्रिय नहीं हैं और नीतीश कुमार भी पिछले 20 सालों में कमज़ोर पड़े हैं. 74 साल के नीतीश कुमार न केवल राजनीतिक रूप से कमज़ोर पड़े हैं बल्कि सेहत के मोर्चे पर भी बहुत फिट नहीं दिखते हैं.
रिज़वान मानते हैं कि नीतीश कुमार के कमज़ोर पड़ने से जो जगह ख़ाली हो रही है, बीजेपी ने उसके लिए कोई तैयारी नहीं की और इसीलिए वह उस जगह को भर नहीं पाई.
नीतीश की जगह ख़ाली?
रिज़वान कहते हैं, ''नीतीश कुमार को कमज़ोर करने में बीजेपी का भी हाथ है. 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव याद कीजिए. अगर बीजेपी चाहती तो चिराग पासवान को रोक सकती थी लेकिन चिराग पर बीजेपी चुप रही. लेकिन नीतीश का कमज़ोर पड़ना बीजेपी के हक़ में नहीं गया. मुझे लगता है कि नीतीश की जगह प्रशांत किशोर ले रहे हैं और इस चुनाव से स्पष्ट भी हो जाएगा. नीतीश कुमार के कमज़ोर पड़ने का फ़ायदा बीजेपी को तब होता जब उनका वोट बैंक बीजेपी के साथ आ जाता लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हुआ है.''
2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू ने 115 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और जीत महज 43 सीटों पर मिली थी. जेडीयू का वोट शेयर 15.39% था.
दूसरी तरफ़ बीजेपी ने 110 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और जीत 74 सीटों पर मिली थी. बीजेपी का वोट शेयर 19.46% था. चिराग पासवान की एलजेपी ने 135 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और जीत महज एक सीट पर मिली थी. लेकिन एलजेपी का वोट शेयर 5.66% रहा था.
पुष्पेंद्र कहते हैं कि यही 5.66% वोट नीतीश कुमार पर भारी पड़ा था और बीजेपी चाहती तो इसे रोक सकती थी. चिराग पासवान ने ज़्यादातर उम्मीदवार उन सीटों पर उतारे थे, जहाँ से जेडीयू के उम्मीदवार चुनाव लड़ रहे थे.
साल 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए बिहार में पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आया था. अक्तूबर 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 55 और जेडीयू को 88 सीटों पर जीत मिली थी.
बीजेपी को फ़ायदा और नुक़सान दोनों
2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को और प्रचंड जीत मिली. लालू-रामविलास का गठबंधन 25 सीटों पर ही सिमटकर रह गया था जबकि एनडीए को 243 सीटों वाली विधानसभा में 206 सीटों पर जीत मिली.
जेडीयू 115 सीटें जीतने में कामयाब रही और बीजेपी 91.
2015 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू और आरजेडी मिलकर चुनाव लड़े. जेडीयू को 71 सीटों पर जीत मिली और आरजेडी को 80 सीटों पर जबकि बीजेपी 53 सीटों पर सिमटकर रह गई.
वरिष्ठ पत्रकार संजय सिंह मानते हैं कि नीतीश कुमार का कमज़ोर पड़ना बीजेपी के लिए फ़ायदे और नुक़सान दोनों रहे हैं.
संजय सिंह कहते हैं, ''फ़ायदा इस लिहाज से कि नीतीश कुमार से बीजेपी के लिए तोल मोल कर करना बहुत मुश्किल था. लेकिन नीतीश कुमार के बाद जेडीयू में ऐसा कोई नेता नहीं है, जो बीजेपी की नहीं सुनेगा. मेरा मानना है कि बिना नीतीश कुमार के जेडीयू लगभग बीजेपी ही है.''
संजय सिंह कहते हैं, ''नीतीश के कमज़ोर पड़ने का नुक़सान बीजेपी को ये हुआ कि उनकी जगह की भरपाई करने के लिए उसके पास कोई नेता नहीं है. बीजेपी ने नित्यानंद राय को आगे किया लेकिन नहीं चले. सम्राट चौधरी को आगे किया लेकिन वहां भी बहुत संभावना नहीं है. नीतीश को कमज़ोर करने में बीजेपी की भी बड़ी भूमिका है लेकिन उसके लिए यह बड़ी चुनौती भी बनती दिख रही है.''
2025 के बिहार विधानसभा चुनाव को नीतीश कुमार और जेडीयू के अस्तित्व की लड़ाई के रूप में भी देखा जा रहा है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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