रूस अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार को मान्यता देने वाला पहला देश बन गया है.
क़रीब चार साल पहले जब तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा किया और सत्ता में आए, तब से अब तक यह उनकी सबसे बड़ी कूटनीतिक सफलता मानी जा रही है.
अफ़ग़ानिस्तान के कार्यकारी विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी ने कहा कि उन्हें उम्मीद है रूस का ये क़दम बाक़ी देशों के लिए मिसाल बनेगा, जो अब तक तालिबान की सरकार को मान्यता देने से बचते आ रहे थे.
उन्होंने रूस के फ़ैसले को 'साहसी क़दम' बताया है.
रूस के विदेश मंत्रालयने कहा कि वह इस फ़ैसले से 'ऊर्जा, परिवहन, कृषि और बुनियादी ढांचे में व्यापारिक और आर्थिक' सहयोग की संभावना देखता है और काबुल को आतंकवाद और मादक पदार्थों की तस्करी के ख़तरों से निपटने में मदद करता रहेगा.
हालांकि, इस फ़ैसले की कई लोगों ने आलोचना भी की है.
अफ़ग़ानिस्तान की पूर्व सांसद फ़ौज़िया कूफ़ी ने कहा, "ऐसे क़दम सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान के लोगों को ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की सुरक्षा को भी ख़तरे में डाल सकते हैं."
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वहीं, अफ़ग़ान वीमेन पॉलिटिकल पार्टिसिपेशन नेटवर्क ने कहा कि इससे 'ऐसी सत्ता को मान्यता मिलती है जो तानाशाही शासन चला रही है. महिलाओं के ख़िलाफ़ है और बुनियादी नागरिक अधिकारों को लगातार ख़त्म कर रही है.'
तालिबान सरकार पहले कह चुकी है कि वह महिलाओं के अधिकारों का सम्मान करती है, लेकिन अफ़ग़ान संस्कृति और इस्लामी क़ानून की उनकी अपनी व्याख्या के मुताबिक़.
अफ़ग़ानिस्तान में 2021 के बाद से, 12 साल से बड़ी उम्र की लड़कियों को स्कूल जाने से रोक दिया गया है, और अधिकतर नौकरियों में महिलाओं को काम करने नहीं दिया जा रहा है.
साथ ही, महिलाओं के अकेले दूर जाने पर भी पाबंदी लगाई गई है, उन्हें पुरुष रिश्तेदार के बिना यात्रा करने की अनुमति नहीं है.
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अभी तक तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग-थलग माना जाता था. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि रूस के इस क़दम ने अब तक बनी वैश्विक सहमति में दरार डाल दी है.
अब तक ऐसा माना जाता था कि तालिबान को औपचारिक मान्यता दिए बिना भी सीमित बातचीत करके अपने हित साधे जा सकते हैं. लेकिन रूस ने सीधे मान्यता देकर इस सोच को चुनौती दे दी है.
वॉशिंगटन स्थित थिंक-टैंक विल्सन सेंटर में दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ माइकल कुगेलमैन एक्स पर लिखते हैं, "रूस अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार को औपचारिक मान्यता देने वाला पहला देश बन गया है. अगला नंबर चीन का हो सकता है. अब तक दुनिया में एक आम सहमति थी कि देश अपने हितों के लिए तालिबान से बात तो कर सकते हैं, लेकिन औपचारिक रिश्ता बनाने की ज़रूरत नहीं है. लगता है अब ये सहमति टूटने लगी है.''
चीन ने रूस के फ़ैसले का स्वागत किया है. चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता माओ निंग ने कहा है, "अफ़ग़ानिस्तान हमारा पारंपरिक मित्र और पड़ोसी है. चीन हमेशा मानता रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अलग नहीं किया जाना चाहिए."
भारत की कूटनीतिक चुनौतीअंतरराष्ट्रीय संबंधों की विशेषज्ञ स्वस्ति राव कहती हैं कि रूस के इस फ़ैसले को समझने के लिए पहले रूस और चीन के समीकरण को देखना होगा.
वह बताती हैं, "चीन तालिबान के साथ पहले ही व्यावहारिक तौर पर संपर्क में है, वहां उसके कई निवेश हैं. अब रूस पहला देश बना है जिसने औपचारिक मान्यता दी है. यह एक स्ट्रैटेजिक शिफ़्ट है."
1979 में सोवियत संघ ने अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेप किया था, जिससे यह देश दशकों तक गृहयुद्ध और अस्थिरता का शिकार बना रहा.
लेकिन सोवियत संघ को मुजाहिदीन लड़ाकों के ख़िलाफ़ लगातार संघर्ष करना पड़ा. अमेरिका, पाकिस्तान और सऊदी अरब जैसे देशों ने इन लड़ाकों को भारी आर्थिक और सैन्य सहायता दी.
1980 के दशक के अंत में अमेरिका की ओर से स्टिंगर मिसाइल देने के बाद सोवियत सेना की हवाई ताक़त कमजोर पड़ गई और ग़ोर्बाचेव की अगुवाई में 1988 से सैनिकों की वापसी शुरू हुई.
2021 में अमेरिका की वापसी के बाद तालिबान ने फिर सत्ता हासिल की. इस बार अंतरराष्ट्रीय हालात बदल गए. अब रूस ने तालिबान को अपनी 'आतंकवादी सूची' से हटा दिया है, जिससे दोनों के बीच व्यापार और राजनयिक संबंधों में तेज़ी आई है.
स्वस्ति राव कहती हैं, "आईएस-खुरासान को नियंत्रण में रखने के लिए रूस तरह-तरह से दबाव बनाए रखता है लेकिन तालिबान से सीधी बात करना भी ज़रूरी है. इसमें एक काउंटर-टेररिज़्म का एंगल भी है."
"कॉकेशस में रूस का असर घटा है, ईरान ख़ुद कमज़ोर है और सीरिया का बेस भी ख़तरे में है. ऐसे में अफ़ग़ानिस्तान रूस के लिए एक नया मज़बूत आधार बन सकता है."
उनका मानना है कि यूक्रेन युद्ध के चलते रूस की अंतरराष्ट्रीय स्थिति कमज़ोर हुई है और ऐसे में वह अपने आसपास के इलाक़े में नए ठिकाने तलाश रहा है.
वह कहती हैं कि इसमें ''रूस को चीन का भी समर्थन मिलेगा, क्योंकि यूक्रेन युद्ध के बाद रूस चीन का जूनियर पार्टनर बन चुका है.''
अनुराधा चिनॉय, जेएनयू के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ की पूर्व डीन और रिटायर्ड प्रोफ़ेसर हैं.
वह कहती हैं, "रूस जैसे देश मान्यता क्यों दे रहे हैं? क्योंकि उनको पता है कि तालिबान उस समाज का ऑर्गेनिक स्ट्रक्चर है. इनको आप बाहर से नहीं बदल सकते. अंदर से जब कोई चर्चा या आंदोलन होगा तभी ये बदल सकता है."
अनुराधा चिनॉय कहती हैं, "इसी वजह से रूस, चीन और भारत जैसे देश तालिबान से बातचीत करना चाहते हैं और उनकी अंदरूनी बातों में दख़ल नहीं देते. यही इनकी नीति है."
उनका मानना है कि 'रूस की तालिबान से दोस्ती उसके लिए ख़ुद को अफ़ग़ानिस्तान और सेंट्रल एशिया से आने वाली संभावित अस्थिरता से बचाने का तरीक़ा भी है. साथ ही अगर भविष्य में ट्रांस-अफ़ग़ान पाइपलाइन या कोई क्षेत्रीय परियोजना बनती है तो रूस उसमें अपनी भागीदारी पक्की करना चाहता है.'

भारत ने तालिबान को फ़िलहाल औपचारिक मान्यता नहीं दी है. स्वस्ति राव ने इसे भारत की पारंपरिक नीति का हिस्सा बताया है.
उन्होंने कहा, "भारत की पूरी दुनिया में हमेशा से यही शैली रही है, तो वह अचानक कैसे तालिबान को डिप्लोमैटिक मान्यता दे देगा? भारत ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि भारत अमेरिका और यूरोपियन यूनियन से भी अपने रिश्ते बनाए रखना चाहता है."
भारत की इस सतर्कता के पीछे पश्चिमी देशों के साथ उसके व्यापक व्यापारिक और कूटनीतिक हित भी हैं.
अनुराधा चिनॉय ने इस बारे में कहा, "भारत थोड़ा हिचकता है क्योंकि वह चाहता है कि अमेरिका और यूरोप के साथ उसके रिश्ते बने रहें."
भले ही भारत ने तालिबान को औपचारिक मान्यता नहीं दी, लेकिन उसने अफ़ग़ानिस्तान के साथ 'एंगेज विदाउट रिकॉग्निशन' (यानी औपचारिक मान्यता दिए बिना संपर्क बनाए रखना) की पॉलिसी जारी रखी है.
इसी साल मई में भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने अफ़ग़ानिस्तान के कार्यकारी विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी से फ़ोन पर बात की थी.
यह पहली बार था कि भारत के विदेश मंत्री ने तालिबान के विदेश मंत्री से बातचीत की और सार्वजनिक तौर पर बयान जारी किया. एस जयशंकर ने फ़ोन कॉल के दौरान, पहलगाम हमले को लेकर मुत्तक़ी की ओर से की गई निंदा की सराहना की थी.
इस बातचीत के बाद दोनों देशों की तरफ़ से बयान जारी किया गया था. एस जयशंकर ने कहा था, "इस बातचीत में अफ़ग़ान लोगों के साथ हमारी पारंपरिक दोस्ती और उनके विकास की ज़रूरतों के प्रति लगातार समर्थन का ज़िक्र किया गया. सहयोग को आगे ले जाने के तरीक़ों और साधनों पर चर्चा की गई."
वहीं अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय की ओर से दी गई जानकारी में कहा गया, "रिपब्लिक ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्री मौलवी अमीर ख़ान मुत्तक़ी और रिपब्लिक ऑफ़ इंडिया के विदेश मंत्री जयशंकर के बीच फ़ोन पर बातचीत हुई. यह बातचीत द्विपक्षीय संबंधों, व्यापार और कूटनीतिक रिश्ते को मज़बूत करने पर केंद्रित थी."
भारत काबुल में एक समावेशी सरकार के गठन की वकालत करता रहा है.
हाल के महीनों में भारत और तालिबान के बीच संपर्क बढ़ा है. जनवरी में भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी ने दुबई में अमीर ख़ान मुत्तक़ी से मुलाक़ात की थी.
स्वस्ति राव कहती हैं, ''भारत आगे भी 'एंगेजमेंट विदाउट रिकग्निशन' की नीति पर ही चलता दिख सकता है. हां, इसमें इतना जरूर होगा कि एंगेजमेंट और गहरा होगा."
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अगस्त 2021 में जब अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर तालिबान ने दोबारा कब्ज़ा किया था, उस वक़्त इसे भारत के लिए कूटनीतिक और रणनीतिक झटके के रूप में देखा गया था.
ऐसा लग रहा था कि भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में जो अरबों डॉलर के निवेश किए हैं, उन पर पानी फिर जाएगा.
भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में 500 से अधिक परियोजनाओं पर क़रीब तीन अरब डॉलर का निवेश किया है, जिनमें सड़कें, बिजली, बांध और अस्पताल तक शामिल हैं.
भारत ने अफ़ग़ान सैन्य अधिकारियों को प्रशिक्षित किया, हज़ारों छात्रों को छात्रवृत्ति दी और वहां एक नया संसद भवन भी बनवाया.
हालांकि, अफ़ग़ानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत रहे जयंत प्रसाद ने बीती जनवरी मेंबीबीसी संवाददाता सौतिक बिस्वासको बताया था कि "पिछले तीन सालों से भारत ने विदेश सेवा के एक राजनयिक के ज़रिए तालिबान के साथ संपर्क बनाए रखा है."
स्वस्ति राव बताती हैं, "भारत को अफ़ग़ानिस्तान में अपनी स्ट्रैटेजिक डेप्थ चाहिए. भारत ने कई डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स किए हैं, जैसे अफ़ग़ान संसद का निर्माण भारत ने किया था. स्थिति गंभीर इसलिए है क्योंकि भारत के पैरेलल कनेक्टिविटी प्रोजेक्ट्स पाकिस्तान को बायपास करके ही आगे बढ़ सकते हैं."
उन्होंने बताया कि तालिबान की पाकिस्तान से कई मसलों पर नहीं बनती, ख़ासकर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान यानी टीटीपी को लेकर. "भारत इस फॉल्टलाइन को भी अपने हित में इस्तेमाल करने की कोशिश करता रहा है."
अनुराधा चिनॉय का कहना है, "भारत का अफ़ग़ानिस्तान से कभी भी हितों का टकराव नहीं रहा. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान को कई विकास योजनाओं में मदद दी है."
उनके मुताबिक़, "तालिबान शासन भी भारत को लेकर अपेक्षाकृत नरम रहा है. अफ़ग़ान नागरिक इलाज के लिए भारत आते हैं और इससे भी दोनों देशों में एक सकारात्मक छवि बनी रहती है."
ऐसे में विशेषज्ञ मानते हैं कि कुल मिलाकर अफ़ग़ानिस्तान कूटनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक, तीनों ही नज़रिए से भारत के लिए अहम है.
अब आगे क्या?जब रूस तालिबान को मान्यता दे चुका है और चीन पहले ही तालिबान के साथ गहरे कारोबारी और राजनीतिक रिश्ते बना रहा है, ऐसे में जानकार मानते हैं कि भारत के सामने दो विकल्प हैं. या तो वह इसी 'एंगेज विदाउट रिकग्निशन' की नीति को कुछ समय और जारी रखे, या फिर धीरे-धीरे औपचारिक मान्यता की तरफ़ बढ़े.
स्वस्ति राव कहती हैं, "जिस दिन भारत ने पूरी तरह राजनयिक मान्यता दे दी, उसी दिन वह ख़ुद को एक बॉक्स में बंद कर लेगा."
उनके मुताबिक़, भारत की नीति यही रहेगी कि वह अपने विकल्प खुले रखे.
स्वस्ति राव ने बताया, "भारत का अगला सबसे समझदारी वाला क़दम होगा, काउंटर-बैलेंसिंग. यानी भारत तालिबान के साथ संपर्क तो बढ़ाएगा ताकि वहां चीन और पाकिस्तान का पूरी तरह दबदबा न हो, लेकिन वह तुरंत औपचारिक मान्यता नहीं देगा."
अनुराधा चिनॉय कहती हैं, "भारत को अपनी रणनीति स्वतंत्र रखनी चाहिए. ऐसा न कि पाकिस्तान कर रहा है तो भारत को करना है, न ऐसा कि यूरोप दबाव डाल रहा है तो भारत को करना है."
उनका मानना है कि भारत को धीरे-धीरे तालिबान से बातचीत बढ़ानी होगी, और अगर भारत को वहां इंफ्रास्ट्रक्चर या विकास में बड़ा रोल निभाना है तो एक न एक दिन मान्यता देनी ही पड़ेगी.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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