चीन के शहर तियानजिन में जब शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सदस्य देशों के नेता 31 अगस्त से एक सितंबर के बीच शिखर सम्मेलन के दौरान मिले, तो एक नए डिवेलपमेंट बैंक की योजना को आख़िरकार अंतिम रूप दे दिया. चीन लंबे समय से इस बैंक की वकालत कर रहा था.
चीन की मीडिया ने एससीओ के इस डिवेलपमेंट बैंक की संभावनाओं की सराहना की है. वहां ये कहा जा रहा है कि यह बैंक प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध सदस्य देशों को उनके बुनियादी ढांचे के विकास के लिए वित्तीय मदद दे सकता है.
साथ ही, ये बैंक चीन और मध्य एशिया के बीच आर्थिक गठजोड़ को तेज़ कर सकता है और पूरे यूरेशिया में चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) की मौजूदगी को भी मज़बूत कर सकता है.
अतीत में रहीं रूस की आपत्तियों को रेखांकित करते हुए मीडिया रिपोर्टों में ये बताया गया है कि यूक्रेन में जंग की वजह से लगे पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के बाद क्रेमलिन के रुख़ में बदलाव आया है.
ताज़ा पाबंदियों की आशंका झेल रहे ईरान ने भी इस बैंक की स्थापना का समर्थन किया और इसे पश्चिमी वित्तीय प्रतिबंधों से बचने का एक संभावित ज़रिया बताया.
मीडिया रिपोर्टों में इस नए बैंक को 'वित्तीय मामलों में पश्चिमी वर्चस्व' का मुक़ाबला करने, चीन की मुद्रा युवान रेनमिनबी के अंतरराष्ट्रीय प्रभाव को बढ़ाने और वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में बहुध्रुवीयता को बढ़ावा देने के एक ज़रिए के तौर पर भी देखा गया.
हालांकि, इन रिपोर्टों में भारत की ओर से संभावित तौर पर अनिच्छा ज़ाहिर करने और अमेरिका से मिल सकने वाली धमकियों जैसे मुद्दों को भी रेखांकित किया गया है.
क्या है एससीओ बैंक और ये क्या करेगा?चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने एक सितंबर को प्रेस वार्ता में आठ प्रमुख एससीओ शिखर सम्मेलन के परिणामों में 'बैंक की राजनीतिक स्तर पर मंज़ूरी' को रेखांकित किया और कहा कि चीन का प्रस्ताव आख़िरकार हक़ीकत बनने जा रहा है.
उन्होंने कहा कि यह बैंक यूरेशिया में बहुपक्षीय सहयोग के लिए एक नया मंच देगा, जो एससीओ के सदस्य देशों में बुनियादी ढांचा, आर्थिक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देगा. उन्होंने इसे 'सदस्य देशों और पूरे क्षेत्र के लिए जश्न की एक वजह' बताया.
चीन के सरकारी चाइना न्यूज़ सर्विस (सीएनएस) ने बताया कि एससीओ बैंक का प्रस्ताव सबसे पहले चीन ने साल 2010 में रखा था, लेकिन इसे स्थापित करने के प्रयास असल में 2025 में आकर तेज़ हुए. इसमें जून 2025 में हुई एससीओ देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों की बैठक में हुई 'महत्वपूर्ण प्रगति' के साथ ही जुलाई में सदस्यों के विदेश मंत्रियों की बैठक में 'सैद्धांतिक सहमति' बनना शामिल था.
चीनी मीडिया का तर्क था कि संसाधनों से भरे एससीओ देशों में इन्फ़्रास्ट्रक्चर से जुड़ी परियोजनाओं की फाइनेंसिंग में आ रही कठिनाइयों ने इस बैंक की ज़रूरत की ओर इशारा किया. साथ ही कहा गया कि ये सदस्य देशों के बीच क्षेत्रीय स्तर पर आर्थिक सहयोग को गति दे सकता है.
चीन के सरकारी न्यूज़ पोर्टल द पेपर ने रूस और कज़ाख़स्तान में "विकास की उज्ज्वल संभावनाओं" का ज़िक्र किया, जहां तेल, प्राकृतिक गैस, कोयला और लौह अयस्क जैसे संसाधन मौजूद हैं. मगर इन देशों के पास बुनियादी ढांचे के विकास के लिए पर्याप्त पूंजी नहीं है.
इसी तरह की वित्तीय कठिनाइयां ताजिकिस्तान, किर्गिज़स्तान और उज़्बेकिस्तान में भी देखी गई हैं, जिन्हें हाइड्रोपावर, खनिज संसाधनों और एनर्जी एक्सट्रैक्शन जैसे क्षेत्रों में अपने देश के विकास के लक्ष्यों को साकार करने के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी की ज़रूरत है.
बीजिंग स्थित पार्टी के स्वामित्व वाले अख़बार 'बीजिंग न्यूज़' ने दो सितंबर को प्रकाशित एक संपादकीय में उम्मीद जताई कि नया बैंक सदस्य देशों के बीच ऊर्जा, परिवहन और संचार जैसी सीमापार बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए वित्तीय मदद देगा. इससे क्षेत्रीय व्यापार और निवेश की सुगमता बढ़ेगी. साथ ही एससीओ देशों के बीच आर्थिक सहयोग की प्रक्रिया तेज़ होगी.
इसी संपादकीय में ये भी कहा गया कि यह बैंक चीन और एससीओ सदस्य देशों के बीच व्यापार और निवेश को प्रोत्साहित करेगा, जिससे चीन के बीआरआई की यूरेशिया में उपस्थिति और मज़बूत होगी.
'द पेपर' ने यह भी सुझाव दिया कि इस बैंक को ब्रिक्स न्यू डिवेलपमेंट बैंक से अलग दिखाने के लिए इसे मध्य एशिया में स्थित होना चाहिए. साथ ही इसका फ़ोकस बड़े पैमाने पर ऊर्जा और ट्रांसपोर्टेशन इन्फ़्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए पूंजी उपलब्ध करवाने पर होना चाहिए.

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सरकारी फ़ाइनेंशियल न्यूज़पेपर सिक्योरिटीज़ टाइम्स के मुताबिक, एससीओ डिवेलपमेंट बैंक का विचार भले ही पहली बार चीन ने 2010 में पेश किया हो, लेकिन उस समय भी कुछ सदस्य देशों ने इसका विरोध किया था क्योंकि उस समय इस संगठन की प्राथमिकता क्षेत्रीय सुरक्षा को बढ़ावा देने की थी.
अर्द्ध-सरकारी मीडिया पोर्टल 'गुआनचा' ने हांग कांग के दैनिक अख़बार साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट के हवाले से बताया कि रूस ने पहले इस बैंक के प्रस्ताव का विरोध किया था और इसकी जगह वह अपने यूरेशियन डिवेलपमेंट बैंक (ईडीबी) का विस्तार करना चाहता था.
द पेपर ने ये भी रेखांकित किया है कि एससीओ के भीतर ही चीन और रूस के हितों में फर्क है. जहां चीन मध्य एशिया के साथ आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देकर ऊर्जा के आयात में विविधता लाना चाहता है, तो वहीं रूस इस क्षेत्र में अपनी पुरानी आर्थिक पकड़ को मज़बूत करना चाहता है.
लेकिन रूस-यूक्रेन जंग की वजह से यूरोप और अमेरिका की ओर से लगाए गए व्यापक प्रतिबंधों ने रूस की अपनी 'पूर्व की ओर झुकाव' वाली नीति को तेज़ी से अपनाने पर मजबूर कर दिया. साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट ने एक चीनी एक्सपर्ट के हवाले से ये लिखा है कि यही कारण है कि रूस का एससीओ बैंक पर रुख़ नरम हो गया है.
बीजिंग न्यूज़ के संपादकीय में कहा गया है कि रूस पर पश्चिमी पाबंदियों ने दुनिया को 'वित्तीय हथियारों' की ताकत दिखाई. साथ ही पश्चिमी वित्तीय व्यवस्था पर हद से अधिक निर्भरता के जोख़िमों से भी रू-ब-रू करवाया.
संपादकीय में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि 'वित्तीय व्यवस्था में पश्चिम के वर्चस्व' का मुक़ाबला करने और ज़रूरत पड़ने पर पश्चिमी पाबंदियों को दरकिनार करने के लिए नए संस्थागत वित्तीय ढांचे की आवश्यकता है.
इसमें एससीओ बैंक को वैश्विक वित्तीय बहुध्रुवीयता को बढ़ावा देने वाले एक ज़रिए के रूप में विकसित करने की उम्मीद भी जताई गई.
बीजिंग न्यूज़ ने यह भी कहा है कि एससीओ डिवेलपमेंट बैंक के ज़रिए ये संगठन सिर्फ़ सुरक्षा तक सीमित न रहकर आर्थिक सहयोग के क्षेत्र में विस्तार कर सकता है. जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एससीओ के प्रभाव को और बल मिलेगा.
संपादकीय में ये भी उम्मीद जताई गई कि यह बैंक पश्चिमी करेंसी जैसे अमेरिकी डॉलर और यूरो पर निर्भरता भी घटाएगा. क्षेत्र में रेनमिनबी के प्रभाव को बढ़ाएगा और इससे वैश्विक व्यवस्था को बहुध्रुवीय दिशा में आगे बढ़ाया जा सकेगा.
गुआनचा ने सरकार से मान्यता प्राप्त चाइनीज़ एकेडमी ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के ली रूईसी का हवाला देते हुए लिखा कि मौजूदा वैश्विक माहौल किसी भी समय की तुलना में एक नए बहुपक्षीय बैंक की स्थापना के लिए अधिक अनुकूल है.
ईरान खुद भी पश्चिमी पाबंदियों को झेल रहा है. चीनी मीडिया ने एससीओ डिवेलपमेंट बैंक की स्थापना का समर्थन करने वाले देश के रूप में ईरान का नाम प्रमुखता से सामने रखा है.
गुआनचा के मुताबिक, इसी साल जून में चीन में आयोजित एससीओ देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक गवर्नरों की बैठक में हिस्सा लेने के दौरान, ईरान के केंद्रीय बैंक के गवर्नर मोहम्मद-रेज़ा फ़ारज़िन ने कहा कि एससीओ बैंक और इससे जुड़ा करेंसी सेटलमेंट लंबे समय से एकतरफ़ा रही व्यवस्था से बाहर निकलने में मदद करेगा.
साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट में ईरानी राजनीतिक विश्लेषक पेमान सालेही ने लिखा कि एससीओ के वित्तीय ढांचे में ईरान को शामिल करना, उसके लिए नई पाबंदियों के बीच ज़िंदा रहने के लिए अनिवार्य है. उन्होंने ये भी कहा कि एससीओ बैंक ईरान के लिए एक 'राजनीतिक कवच' बन सकता है. इससे वह अपनी जनता के सामने प्रतिबद्ध रहकर बाहरी शक्तियों को यह संकेत दे सकता है कि अब पाबंदियां आदेशों का पालन करवाने की गारंटी नहीं हैं.
गुआनचा ने यह भी बताया कि कज़ाख़स्तान, किर्गिज़स्तान और उज़्बेकिस्तान जैसे मध्य एशियाई एससीओ सदस्य देशों ने भी नए बैंक के लिए समर्थन जताया है.
रूस की सरकारी समाचार एजेंसी स्पुतनिक के चीनी एडिशन को दिए एक साक्षात्कार में मॉस्को स्टेट यूनिवर्सिटी के मासलोव अलेक्सी अलेक्ज़ैड्रोविच ने कहा कि एससीओ बैंक निवेश परियोजनाओं और एक सुरक्षित करेंसी सेटलमेंट सिस्टम के लिए ज़रूरी होगा.
उन्होंने ये भी कहा कि एससीओ बैंक इस संगठन को कई देशों के लिए बेहद आकर्षक बना देगा. साथ ही ये भी विश्वास जताया कि आने वाले समय में संगठन में दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों को भी शामिल किया जा सकता है.
'चाइना डेली' में नैरोबी स्थित थिंक टैंक साउथ-साउथ डायलॉग्स के कार्यकारी निदेशक स्टीफ़न एनडेगवा ने कहा, "इन्फ़्रास्ट्रक्चर की भारी कमी और ऊंची लागत से जूझ रहे अफ़्रीका के लिए एससीओ बैंक ऐसे वित्तीय मॉडल का संकेत दे सकता है, तो पुराने कर्ज़दाताओं के नियमों से कम बंधा हुआ है."
हालांकि, गुआनचा ने साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए संभावित भारतीय आपत्तियों को भी रेखांकित किया है.
इसमें एक दिल्ली स्थित थिंक टैंक के हवाले से कहा गया है कि भारत की मल्टी अलाइनमेंट कूटनीति का उद्देश्य 'चीन को एक प्रमुख व्यापारिक साझेदार बनाए रखने के साथ ही चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को संतुलित करना है.'
गुआनचा ने इस पर भी ज़ोर दिया है कि अमेरिका की संभावित प्रतिक्रिया को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता और राष्ट्रपति ट्रंप की अतीत में दी गईं उन चेतावनियों को भी याद किया, जिसमें उन्होंने ब्रिक्स देशों को ये चेतावनी दी थी कि अगर वे डॉलर के विकल्प के रूप में किसी नई मुद्रा की योजना को नहीं छोड़ते, तो उनपर 100 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया जाएगा.
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