अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी के पूर्व सांसद रॉन पॉल ने साल 2012 में एक टिप्पणी की थी, जो दूसरे देशों में अमेरिका की लंबे वक्त तक दख़लअंदाज़ी के बारे में थी.
उनका कहना था, "क्यों ना हम विदेश नीति में एक गोल्डन रूल अपनाएं- दूसरे देशों के साथ वो ना करें, जो हम अपने देश के साथ नहीं होने देना चाहते. हम लगातार दूसरे देशों पर बम बरसाते रहते हैं, और फिर सोचते हैं कि वे हमसे नाराज़ क्यों हैं."
मध्य-पूर्व में अमेरिका की ऐसी दखलअंदाज़ी से कई बार अहम मोड़ भी आए.
तो आज स्पॉटलाइट में बात उन कुछ अहम मौक़ों की जब अमेरिका ने मध्य-पूर्व में बड़ा ख़ुफ़िया अभियान चलाया या सैन्य हस्तक्षेप किया.
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1951 में मोहम्मद मोसादेग ईरान के प्रधानमंत्री बने. वो चाहते थे कि ईरान की तेल इंडस्ट्री का कंट्रोल ईरान सरकार के हाथों में हो, ना कि विदेशी कंपनियों के. इसलिए उन्होंने तेल व्यापार के राष्ट्रीयकरण के बारे में सोचा.
उस वक़्त ईरान के तेल का नियंत्रण ब्रिटिश कंपनियों के हाथ में था. साल 1901 में डारसी समझौता हुआ था. उसके तहत ब्रिटिश नागरिक विलियम डारसी को ईरान के एक बड़े हिस्से में तेल खोजने, तेल निकालने और व्यापार करने के लिए विशेष अधिकार दिया गया था.
इसके बदले में ईरान की सरकार को कुछ शेयर, एक तय रकम और तेल उत्पादन पर टैक्स मिलता था. इन ब्रिटिश तेल कंपनियों में ब्रिटिश सरकार का भी शेयर था.
राष्ट्रीयकरण की वजह से तेल पर नियंत्रण खोने के डर से ब्रिटिश सरकार ने अमेरिका की मदद मांगी. अमेरिका उस वक़्त सोवियत संघ के साथ शीत युद्ध में था.
ऐसा माना जा रहा था कि ईरान सोवियत संघ के पाले में जा सकता है और ऐसा होता तो मध्य-पूर्व में अमेरिका के लिए एक बड़ा झटका होता. मोसादेग की सरकार को गिराने के लिए अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए ने अहम भूमिका निभाई.
मोसादेग के ख़िलाफ़ ईरानी मीडिया और अमेरिकी मीडिया में झूठी ख़बरें फैलाई गईं और मोसादेग की सरकार के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों को हवा दी गई.
अमेरिका चाहता था कि ईरान में शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी की सत्ता आ जाए, इसलिए उनके समर्थकों को मदद की गई. अगस्त 1953 में ईरान की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन हुए जो तेज़ी से फैलने लगे. सेना ने भी अपना पाला बदल लिया.
मोसादेग की सरकार का तख़्तापलट हो गया और जनरल फज़्लोल्लाह ज़ाहेदी नए प्रधानमंत्री बने और सत्ता शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी के हाथों में आ गई.
ईरानी मामलों के जानकार इसे ईरान के इतिहास में एक निर्णायक घटना के रूप में देखते हैं क्योंकि लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई एक सरकार को गिराने में विदेशी ताक़तों ने मदद की.
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अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध अब भी चल रहा था. साल 1957 में उस वक़्त के अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट डी आइज़नहावर एक विदेश नीति लेकर आए.
इस नीति के मुताबिक़ अगर मध्य पूर्व के किसी देश को कोई ख़तरा दिखाई देता है, ख़ासकर कम्युनिस्ट ताकतों से, तो वे देश अमेरिका से आर्थिक और सैन्य मदद ले सकते हैं.
ज़ाहिर है, अमेरिका यह नीति सोवियत संघ के प्रभाव को रोकने के लिए लाया था. इस नीति का पहला टेस्ट हुआ साल 1958 के लेबनान संकट के दौरान.
उस वक़्त लेबनान में ईसाई राष्ट्रपति कमील शमोन थे. लेबनान में मुस्लिम और राष्ट्रवादी संगठनों ने उनका विरोध शुरू कर दिया था. उनका दावा था कि शमोन सत्ता में रहने के लिए संविधान बदलना चाहते हैं.
इसके अलावा लेबनान के सुन्नी मुस्लिम मिस्र (इजिप्ट) और सीरिया के बनाए नए 'यूनाइटेड अरब रिपब्लिक' में शामिल होना चाहते थे.
इजिप्ट के राष्ट्रपति के रिश्ते सोवियत संघ के साथ अच्छे थे, जबकि लेबनान के राष्ट्रपति के रिश्ते पश्चिमी देशों के साथ अच्छे थे. लेबनान में विरोध बढ़ा, हालात गृह युद्ध जैसे हो गए तो शमोन ने अमेरिका की मदद मांगी.
इसके बाद जुलाई 1958 में अमेरिका की सेना लेबनान में उतर गई. उनका मक़सद बेरूत इंटरनेशनल एयरपोर्ट को सुरक्षित रखना था और शमोन की सरकार के लिए हालात को स्थिर बनाना था.
अमेरिका के इस दख़ल के बाद उस वक़्त शमोन के लिए ख़तरा टल गया और वे राष्ट्रपति के तौर पर अगला कार्यकाल न लेने पर राज़ी हो गए.
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साल 1967 में छह दिन के युद्ध में इसराइल ने सिनाई, गोलान हाईट्स, वेस्ट बैंक और ग़ज़ा पर कब्ज़ा कर लिया था. लेकिन इजिप्ट और सीरिया चाहते थे कि साल 1967 से पहले जो स्थिति थी, इसराइल उसे बहाल करने पर राज़ी हो जाए.
दूसरी तरफ इसराइल की शर्त थी कि अरब देश उसके वजूद को वैध मानें. स्थिति एक डेडलॉक की बन गई थी जो ख़त्म नहीं हो पा रहा था. फिर अक्तूबर 1973 में, यहूदी कैलेंडर के सबसे पवित्र दिन, जिसे योम किप्पुर कहा जाता है, उस दिन इजिप्ट और सीरिया ने अचानक इसराइल पर हमला कर दिया.
इसराइल इस हमले के लिए तैयार नहीं था, तो अमेरिका इसराइल की मदद के लिए आगे आया. अमेरिका ने एक एयरलिफ़्ट ऑपरेशन के ज़रिए विमानों से इसराइल को सैन्य मदद भेजी.
इसराइल को वक़्त पर मदद मिलने की वजह से युद्ध की दिशा बदल गई. युद्ध में अमेरिका इसराइल को हथियार दे रहा था, तो सोवियत संघ इजिप्ट और सीरिया को.
अंत में युद्ध में इसराइल की जीत तो हुई, लेकिन अमेरिका को भी इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. बल्कि, इस युद्ध ने अमेरिका और सोवियत संघ के बीच परमाणु युद्ध की आशंका को भी बढ़ा दिया था.
इस युद्ध के बाद दुनियाभर में ऊर्जा का एक संकट आ गया क्योंकि अरब देशों ने अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों में तेल का शिपमेंट रोक दिया था.
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साल 1980 से 1988 तक इराक़ और ईरान के बीच क़रीब आठ साल तक युद्ध चला था. इस युद्ध की वजह से इराक़ पर काफ़ी कर्ज़ हो गया था.
उस वक़्त इराक़ के शासक सद्दाम हुसैन ने यूएई और कुवैत से कहा कि वो इराक़ का कर्ज़ माफ़ कर दें क्योंकि वो तो अरब प्रायद्वीप के देशों को ईरान के विस्तार से बचा रहे थे.
लेकिन इराक़ की यह मांग किसी ने नहीं सुनी. उसके बाद साल 1990 में इराक़ ने कुवैत पर हमला कर दिया. कुवैत भले ही तेल के मामले में मज़बूत था लेकिन सैन्य ताक़त के मामले में वो कमज़ोर था.
हमले के बाद सद्दाम हुसैन की सेना ने कुछ घंटों में ही कुवैत पर कब्ज़ा कर लिया. फिर इस मामले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इराक़ के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पास किया.
उसके बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज एच डब्लयू बुश के नेतृत्व में अमेरिका ने ब्रिटेन, फ्रांस, और कुछ अरब देशों के साथ सैन्य गठबंधन बनाया. इस गठबंधन की सेना ने जनवरी 1991 में हवाई हमलों में इराक़ और कुवैत में इराक़ के महत्वपूर्ण सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया.
इसके बाद फरवरी में चार दिनों के अंदर ही गठबंधन सेना के हज़ारों सैनिक कुवैत में घुस गए. अब इराक़ी सेना को पीछे हटना पड़ा.
इस युद्ध के बाद भी सद्दाम हुसैन की सत्ता तो इराक़ में बनी रही लेकिन इराक़ एक देश के तौर पर अलग-थलग पड़ गया. संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों की वजह से इराक़ में भोजन और दवाइयों की भारी कमी हो गई. इस युद्ध में हज़ारों आम नागरिक भी मारे गए थे.
इस बीच इराक़ में कुर्द और शिया समुदाय ने सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया. सद्दाम हुसैन ने इसे विद्रोह करार देकर दबा दिया.
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साल 2003 में अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और पोलैंड ने मिलकर इराक़ पर हमला कर दिया था. उस वक़्त एक ख़ुफ़िया रिपोर्ट के हवाले से दावा किया गया था कि इराक़ सामूहिक विनाश के हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है.
इस हमले के बाद सद्दाम हुसैन का शासन तो ख़त्म हो गया लेकिन इसके बाद इराक़ में राजनीतिक तौर पर एक खालीपन आ गया. इराक़ के अंदर कई संगठनों की सत्ता पर कब्ज़े के लिए खींचतान के साथ ही देश में गृह युद्ध शुरू हो गया.
इससे इस्लामिक स्टेट जैसे संगठन को इराक़ में पैर जमाने का मौक़ा मिल गया. एक लोकतंत्र के रूप में स्थापित होने की बजाय इराक़ अस्थिरता के दौर में चला गया.
बाद में इराक़ पर हमले के फ़ैसले पर सवाल उठे और 'ख़ुफ़िया रिपोर्ट' पर भी सवाल उठे.
अब ये घटना एक उदाहरण बन गई है कि परिणाम के बारे में बिना सोचे किसी सैन्य हस्तक्षेप का क्या अंजाम हो सकता है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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