New Delhi, 17 जनवरी . कैफी आजमी के गंभीर पर सहज बोल और खय्याम के संगीत को जब लरजती खनकती आवाज का साथ मिला तो खूबसूरत सा गाना तैयार हो गया. ये आवाज थी भूपिंदर सिंह की, जो पर्दे पर हाथ में गिटार लेकर क्लब में गाते भी दिखे. उनकी गायकी ने सबका ध्यान खींचा. वो 18 जुलाई 2022 का ही मनहूस दिन था जब यह पुरकशिश आवाज दुनिया से रुखसत हो गई.
वैसे पहली बार नहीं था जब भूपिंदर सिंह की गंभीर, भारी और बेलौस आवाज हिंदी सिनेमा में गूंजी थी. इससे पहले वॉर ड्रामा हकीकत में भी इनकी बेमिसाल गायकी से हिंदी सिने जगत रूबरू हुआ था. गाना था वही- होके मजबूर मुझे…. यह गीत एक कोरस था जिसे मोहम्मद रफी, मन्ना डे, तलत महमूद और भूपिंदर सिंह ने मिलकर गाया था. उस समय के तीन दिग्गज गायकों के साथ एक नवोदित गायक का नाम आना अपने आप में एक बड़ी बात थी.
भूपिंदर की आवाज इस गीत में स्पष्ट सुनाई देती है और उसकी गहराई गीत की भावनाओं को और अधिक प्रभावशाली बनाती है. इसी गीत ने उन्हें संगीतकारों और श्रोताओं के बीच पहचान दिलाई. वैसे अमृतसर में जन्मे भूपी कभी सिंगर या म्यूजिशियन बनने की ख्वाहिश नहीं रखते थे. इसका किस्सा भी दिलचस्प है. वो खुद ही कई इंटरव्यू में कहते थे कि पिता चूंकि खालसा कॉलेज अमृतसर में संगीत के प्रोफेसर थे इसलिए घर में माहौल भी संगीतमय था. पिताजी जी चाहते थे कि बेटा म्यूजिक सीखे, लेकिन वो ऐसा नहीं चाहते थे. खेलने में उनका मन ज्यादा रमता था.
लेकिन जब डीएनए में संगीत हो तो भला कैसे सुरों से नाता तोड़ते, सो भूपिंदर ने गीत संगीत से दोस्ती की और बड़ा नाम कमाया. ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन दिल्ली से अपने करियर की शुरुआत की. यहीं से उनके अंदर छिपे हुनर को नई उड़ान मिली. लेकिन हिंदी सिनेमा में उन्हें पहला बड़ा ब्रेक फिल्म “आखिरी खत” (1966) से मिला. चेतन आनंद के निर्देशन में सजी फिल्म में राजेश खन्ना ने पहली बार मुख्य अभिनेता की भूमिका निभाई थी. इस फिल्म के संगीतकार खय्याम थे. गजल के उस्ताद खय्याम की एक दुर्लभ जैज़ रचना थी. जिसे भूपिंदर सिंह की गहरी, गंभीर और विशिष्ट आवाज ने विशेष बना दिया. उन्होंने भूपिंदर को एक मौका दिया और यह मौका उनके करियर के लिए मील का पत्थर साबित हुआ. खय्याम साहब के साथ बाद में भी सिंगर ने लाजवाब गीत हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को दिए.
खय्याम के साथ भूपिंदर की जुगलबंदी ने हिंदी सिनेमा को एक से बढ़कर एक गजल से नवाजा. सिंह ने एक ही साल में खय्याम के लिए दो गजलें गाईं. और दोनों दिलों को भेद गईं. दर्द (1981) में ‘अहल-ए-दिल यूं भी निभा लेते हैं’, और आहिस्ता-आहिस्ता (1981) में निदा फ़ाज़ली द्वारा खूबसूरती से लिखी गई ‘कभी किसिको मुक़म्मल जहां’ दिलो दिमाग पर आज भी छाया हुआ है.
इन गजलों को सुनकर एहसास होता है कि भूपिंदर सिंह एक कलाकार नहीं बल्कि मनःस्थिति का नाम हैं. उनकी आवाज में एक गहरा मिजाज है जिसे आप महसूस करना चाहते हैं, महसूस करना चाहते हैं, जब आप कहीं अकेले बैठे हैं या फिर अपने किसी खास के साथ समय गुजार रहे हैं. सिंह एक मूड-सिंगर हैं, और हर बार जब उनकी आवाज कानों में पड़ती है तो निराश नहीं करती. एक ही लकीर पर नहीं चले भूपिंदर साहब. आरडी के ‘हुज़ूर इस कदर भी’ में उनके शोख अंदाज से पहचान होती है.
गुलजार का धारावाहिक मिर्जा गालिब (1988) दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ. संगीतकार और गायक जगजीत सिंह ने भूपिंदर सिंह को कवि-राजा बहादुर शाह जफर की गजल, ‘या मुझे अफसर-ए-शहाना बनाया होता’ और गालिब के प्रतिद्वंद्वी और दरबारी कवि, मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक की ‘लाई हयात ऐ’ के लिए अपनी आवाज दी. धारावाहिक की दोनों गजलें, जो शायरों के निधन पर गाई गई हैं, एक विशेष प्रकार की करुणा का संचार करती हैं.
भूपिंदर सिंह ने गजल गायिका मिताली मुखर्जी से विवाह किया और संगीत के क्षेत्र में दोनों की जोड़ी ने मिलकर कई बेहतरीन प्रस्तुतियां दीं. भूपिंदर सिंह उन विरले गायकों में से थे जिन्होंने गजलों में गिटार, बास और ड्रम्स जैसे वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल किया. इससे गजल का एक नया और आधुनिक रूप सामने आया जिसे युवाओं ने भी खूब सराहा. उनका जीवन संगीत के प्रति समर्पण का प्रतीक बन गया. उन्होंने भारतीय संगीत को एक गहराई, गरिमा और आधुनिकता दी, जिसकी मिसाल कम ही देखने को मिलती है. भूपिंदर सिंह का नाम भारतीय संगीत जगत में सदैव सम्मान और श्रद्धा के साथ लिया जाएगा.
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केआर/
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