लेबनान में शुक्रवार को हुए इस्राइली हमले में हसन नसरल्लाह का मारा जाना हिज्बुल्ला के लिए ऐसा झटका है, जिससे उबरना उसके लिए आसान नहीं होगा। इस्राइली सेना और नेतन्याहू सरकार के लिए यह उतनी ही बड़ी कामयाबी है। अफसोस की बात यह है कि इस कथित झटके या कामयाबी के बाद भी इस क्षेत्र में शांति की संभावना मजबूत नहीं हुई है। इसके उलट संघर्ष के बेकाबू होने का खतरा बढ़ गया है। टॉप लीडरशिप खत्मपिछले तीन दशक से भी ज्यादा समय से हिज्बुल्ला का नेतृत्व कर रहा नसरल्लाह मध्यपूर्व के सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्वों में शुमार किया जाता था। उसकी कमी की जल्द भरपाई होना मुश्किल है। मगर हिज्बुल्ला के लिए यह इकलौता झटका नहीं है। हाल के हमलों में उसके एक दर्जन से ज्यादा टॉप के कमांडर मारे जा चुके हैं। बहुचर्चित पेजर और वॉकी टॉकी हमलों ने उसके इंटरनल कम्युनिकेशन सिस्टम को भी लगभग खत्म कर दिया है। ऐसे में खुद को समेटकर इस्राइल पर दोबारा वैसा ही हमला करना हिज्बुल्ला के लिए काफी मुश्किल होगा। समर्पण के आसार नहीं ताजा झटका कितना भी बड़ा हो, यह समझना गलत होगा कि इससे हिज्बुल्ला इस्राइल के सामने समर्पण कर देगा। पिछले कुछ दशकों में हिज्बुल्ला दुनिया का सबसे ताकतवर नॉन स्टेट एक्टर बन चुका है। उसके पास 1,50,000 से अधिक रॉकेट और मिसाइलें बताई जाती हैं। उसकी सैन्य ताकत किसी मिडल साइज के देश के बराबर मानी जाती है। हिज्बुल्ला ने कहा भी है कि वह इस्राइल के खिलाफ अपना अभियान जारी रखेगा। इस्राइल का रवैया कुछ समय पहले तक 12 देशों की ओर से प्रस्तावित युद्धविराम को लेकर जो भी बची-खुची उम्मीद थी, वह अब समाप्त हो गई है। ताजा कामयाबी ने इस्राइल का उत्साह और बढ़ा दिया है। ऐसे में सवाल यह है कि क्या हिज्बुल्ला की मिसाइलों का खतरा समाप्त करने के बाद इस्राइल अपने सैनिकों को लेबनान में घुसने का आदेश देता है। अगर ऐसा हुआ तो यह एक और लंबी लड़ाई की शुरुआत साबित हो सकती है। ईरान पर निगाहें निगाहें ईरान पर भी टिकी हैं। वह पहले से नाराज है। तेहरान के एक गेस्टहाउस में हमास नेता इस्माइल हानिये की मौत का बदला भी उसे लेना है। नसरल्लाह की मौत उसके लिए भी झटका है। देखने वाली बात यह है कि उसकी प्रतिक्रिया कितनी और कैसी होती है। भारत का रुख जहां तक भारत की बात है तो बाकी पूरी दुनिया की तरह वह भी यही चाहेगा कि संघर्ष की यह आग ज्यादा न फैले। इंडिया-मिडल ईस्ट-यूरोप इकॉनमिक कॉरिडोर (IMEEC) जैसे दूरगामी हितों को फिलहाल छोड़ दें तो भी युद्ध का बेकाबू होना भारत को ही नहीं, ग्लोबल इकॉनमी को भी चुनौतियों के भंवर में डाल सकता है। युद्ध के बेकाबू होने से तेल की कीमतें भी बढ़ सकती हैं, जिससे भारतीय इकॉनमी को नुकसान होगा।
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