दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ चुनावों को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट ने जो सख्त रुख दिखाया है, उसका सभी संबंधित पक्षों को स्वागत करना चाहिए। हाईकोर्ट की यह पहल भले डीयू की ओर केंद्रित हो, लेकिन इससे निकला संदेश देश भर के तमाम विश्विद्यालयों के छात्र संघ चुनावों के लिए है। बात जिम्मेदारी की : पहली नजर में जरूर मामला सार्वजनिक इमारतों की साफ-सफाई और सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा का लगता है, लेकिन वास्तव में यहां मुद्दा छात्र राजनीति को जवाबदेह बनाने का है। हाईकोर्ट ने मतदान के कार्यक्रम के साथ छेड़छाड़ नहीं की, लेकिन मतगणना पर रोक लगाते हुए कहा कि जब तक वह इस बात से संतुष्ट नहीं हो जाता कि चुनाव के दौरान पोस्टरों, बैनरों और पर्चों वगैरह के जरिए फैलाई गई गंदगी पूरी तरह साफ की जा चुकी है, तब तक नतीजे घोषित नहीं किए जाएंगे। खर्च की वसूली : महत्वपूर्ण यह भी है कि इस साफ-सफाई में होने वाला खर्च शुरू में भले ही MCD देगा, मगर उसकी भरपाई बाद में डीयू को करनी होगी। कोर्ट ने यह भी कहा कि डीयू प्रशासन चाहे तो प्रत्याशियों से वह खर्च वसूल सकता है। यानी आखिरकार सफाई का बोझ उन्हीं पर आएगा, जो इस गंदगी के लिए जिम्मेदार होंगे। छात्रसंघ चुनाव में धनबल : यह पूरा मसला दरअसल छात्र राजनीति में बढ़ते बाहुबल और धनबल के जोर से जुड़ा है। दिल्ली में ही डीयू और जेएनयू के छात्रसंघ चुनावों के रूप में दो बिल्कुल अलग-अलग मॉडल उपलब्ध हैं। जहां जेएनयू में तर्क-वितर्क और बहस-मुबाहिसे के माहौल में चुनाव संपन्न होते हैं, वहीं डीयू में गाड़ियों के बड़े-बड़े काफिलों के साथ पूरे तामझाम के बीच चुनाव प्रचार होता है। इस बार भी बगैर नंबर वाली या पोस्टरों से ढके नंबरप्लेट वाली गाड़ियों के इस्तेमाल की शिकायतें कोर्ट के सामने आई हैं। डीयू मॉडल का फैलाव : अफसोस की बात है कि जेएनयू मॉडल मुख्यतया वहीं तक सीमित रहा जबकि डीयू मॉडल का प्रभाव देश के तमाम विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनावों के दौरान दिख जाता है। ध्यान रहे, सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2005 में गठित लिंगदोह समिति ने यूनिवर्सिटी चुनावों में प्रति प्रत्याशी खर्च की अधिकतम सीमा 5000 रुपये तय की थी। यह तभी हो सकता है जब विश्विद्यालयों में चुनाव छात्र अपने बूते लड़ें, राजनीतिक दलों का वैचारिक प्रभाव भले हो, उन्हें अपने संसाधनों के जरिए इन चुनावों को प्रभावित करने की इजाजत न दी जाए। अमल में सावधानी : डीयू चुनावों में हाईकोर्ट का ताजा दखल एक अच्छी शुरुआत साबित हो सकता है। इसे अन्य विश्वविद्यालों में भी लागू करने की कोशिश होनी चाहिए। लेकिन ध्यान रहे, इसका मकसद छात्र राजनीति को ज्यादा स्वच्छ, सहज और लोकतांत्रिक बनाना है, स्टूडेंट कम्युनिटी की लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति को विश्वविद्यालय प्रशासन के अनुशासन की भेंट चढ़ाना नहीं।
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