रमेश तिवारी: मेरे एक मित्र अपने बुजुर्ग पिता की देखभाल में कोई कमी नहीं छोड़ते। डॉक्टर के पास नियमित रूप से जाने में कभी कोताही नहीं होती। एक दफे मेरे मित्र का 15 साल का बेटा भी उनके साथ क्लिनिक चला गया। वहां उसने एक मासूम सा सवाल पूछ डाला- पापा, आपने यहां हेल्थ इंश्योरेंस का इस्तेमाल नहीं किया? मित्र ने कहा, जब हम अस्पताल में भर्ती नहीं होते, सिर्फ चेकअप या छोटी बीमारी के लिए डॉक्टर से मिलते हैं, तो उसे ओपीडी कहते हैं। वहां हर बार फीस देनी होती है। हेल्थ इंश्योरेंस सिर्फ अस्पताल में भर्ती होने पर काम आता है।
मेरे मित्र का जवाब वही था, जो ज्यादातर लोगों के जेहन में अरसे से बैठा है। लेकिन डॉक्टर के रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें टोका। उसने बताया कि बाजार में हेल्थ इंश्योरेंस प्लान आ गए हैं, जो ओपीडी खर्च भी कवर करते हैं। ये खर्च भी बार-बार सामने आकर उतना ही बड़ा हो सकता है, जितना अस्पताल में भर्ती होने का खर्च। अगर ये बीमा हमारे पास हो तो डॉक्टर के पास जाने से हिचकते नहीं। एहतियाती बचाव का मकसद पूरा होता है। वैसे एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में ओपीडी पर खर्च करीब 38 अरब डॉलर सालाना का है, लेकिन इंश्योरेंस के दायरे में आने वाला खर्च महज 0.1 फीसदी के करीब है। भारत में हेल्थकेयर की जितनी लागत है, उसका आधे से भी ज्यादा ओपीडी के दायरे में आता है।
ओपीडी कवर की डिमांड भी तेजी से बढ़ी है। एक अनुमान के मुताबिक, कुछ साल पहले तक हेल्थ बीमा खरीदने वाले 5 फीसदी लोग ही ओपीडी कवर लेते थे। अब ये संख्या 20 फीसदी हो गई है। असल में अस्पताल में भर्ती के दौरान कवर देने वाली जो पॉलिसी बिक रही है, उसी पर कुछ एक्स्ट्रा खर्च के साथ ओपीडी कवर भी दिया जा रहा है। कंपनियां इस मामले में सीधे कस्टमर तक पहुंचने से परहेज कर रही हैं। ये इसलिए है कि ओपीडी का बाजार बिखरा हुआ है। फर्जी बिल बनाकर धोखाधड़ी आसान हो सकती है। ज्यादातर कंपनियां फिलहाल एम्प्लॉयर्स के जरिये ये पॉलिसी दे रही हैं। आम तौर पर 60 फीसदी कर्मचारी इसे अपना भी लेते हैं।
इस इंश्योरेंस में अभी कई लिमिट हैं। कंपनियां सिर्फ अपने नेटवर्क क्लिनिक में ही इलाज की इजाजत देती हैं। मुमकिन है कि नेटवर्क क्लिनिक कस्टमर के घर के करीब न हो। क्लिनिक करीब हो तो डॉक्टर स्पेशलिस्ट न हो। ओपीडी कवर का प्रीमियम भी अक्सर ऊंचा रखा जाता है, ताकि इलाज की सुविधा का गलत इस्तेमाल न हो सके। ये पॉलिसी जरूरी नहीं है कि कैशलेस हो, इलाज के बाद दावा करके वसूलने की जरूरत भी पड़ सकती है।
अक्सर देखा गया है कि इसके तहत इमरजेंसी में इलाज नहीं कराया जा सकता। सिर्फ उन्हीं ओपीडी में ये कारगर है, जहां इलाज की योजना काफी पहले से बनी हुई हो। जैसे शुगर, कोलेस्ट्रॉल और बीपी के रोगी के लिए नियमित कंसल्टेशन। दांतों और आंखों के इलाज के खर्च में अलग अलग क्लिनिक में अंतर हो सकता है, इसलिए इन खर्चों की सीमा भी बांध दी गई है। कुछ कंपनियों ने को-पेमेंट की शर्त रखी है, जिसमें इलाज के कुल खर्च का एक छोटा हिस्सा रोगी को भी देना होगा। पुरानी बीमारियों के लिए इसमें भी वेटिंग पीरियड हो सकता है। दवाओं और जांच के खर्च की भी सीमा हो सकती है। इन सीमाओं के बावजूद एक अच्छी शुरुआत हुई है तो आगे चलकर मार्केट मच्योर हो सकता है।
मेरे मित्र का जवाब वही था, जो ज्यादातर लोगों के जेहन में अरसे से बैठा है। लेकिन डॉक्टर के रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें टोका। उसने बताया कि बाजार में हेल्थ इंश्योरेंस प्लान आ गए हैं, जो ओपीडी खर्च भी कवर करते हैं। ये खर्च भी बार-बार सामने आकर उतना ही बड़ा हो सकता है, जितना अस्पताल में भर्ती होने का खर्च। अगर ये बीमा हमारे पास हो तो डॉक्टर के पास जाने से हिचकते नहीं। एहतियाती बचाव का मकसद पूरा होता है। वैसे एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में ओपीडी पर खर्च करीब 38 अरब डॉलर सालाना का है, लेकिन इंश्योरेंस के दायरे में आने वाला खर्च महज 0.1 फीसदी के करीब है। भारत में हेल्थकेयर की जितनी लागत है, उसका आधे से भी ज्यादा ओपीडी के दायरे में आता है।
ओपीडी कवर की डिमांड भी तेजी से बढ़ी है। एक अनुमान के मुताबिक, कुछ साल पहले तक हेल्थ बीमा खरीदने वाले 5 फीसदी लोग ही ओपीडी कवर लेते थे। अब ये संख्या 20 फीसदी हो गई है। असल में अस्पताल में भर्ती के दौरान कवर देने वाली जो पॉलिसी बिक रही है, उसी पर कुछ एक्स्ट्रा खर्च के साथ ओपीडी कवर भी दिया जा रहा है। कंपनियां इस मामले में सीधे कस्टमर तक पहुंचने से परहेज कर रही हैं। ये इसलिए है कि ओपीडी का बाजार बिखरा हुआ है। फर्जी बिल बनाकर धोखाधड़ी आसान हो सकती है। ज्यादातर कंपनियां फिलहाल एम्प्लॉयर्स के जरिये ये पॉलिसी दे रही हैं। आम तौर पर 60 फीसदी कर्मचारी इसे अपना भी लेते हैं।
इस इंश्योरेंस में अभी कई लिमिट हैं। कंपनियां सिर्फ अपने नेटवर्क क्लिनिक में ही इलाज की इजाजत देती हैं। मुमकिन है कि नेटवर्क क्लिनिक कस्टमर के घर के करीब न हो। क्लिनिक करीब हो तो डॉक्टर स्पेशलिस्ट न हो। ओपीडी कवर का प्रीमियम भी अक्सर ऊंचा रखा जाता है, ताकि इलाज की सुविधा का गलत इस्तेमाल न हो सके। ये पॉलिसी जरूरी नहीं है कि कैशलेस हो, इलाज के बाद दावा करके वसूलने की जरूरत भी पड़ सकती है।
अक्सर देखा गया है कि इसके तहत इमरजेंसी में इलाज नहीं कराया जा सकता। सिर्फ उन्हीं ओपीडी में ये कारगर है, जहां इलाज की योजना काफी पहले से बनी हुई हो। जैसे शुगर, कोलेस्ट्रॉल और बीपी के रोगी के लिए नियमित कंसल्टेशन। दांतों और आंखों के इलाज के खर्च में अलग अलग क्लिनिक में अंतर हो सकता है, इसलिए इन खर्चों की सीमा भी बांध दी गई है। कुछ कंपनियों ने को-पेमेंट की शर्त रखी है, जिसमें इलाज के कुल खर्च का एक छोटा हिस्सा रोगी को भी देना होगा। पुरानी बीमारियों के लिए इसमें भी वेटिंग पीरियड हो सकता है। दवाओं और जांच के खर्च की भी सीमा हो सकती है। इन सीमाओं के बावजूद एक अच्छी शुरुआत हुई है तो आगे चलकर मार्केट मच्योर हो सकता है।
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