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मजदूर - मीनू कौशिक

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बहाकर  के   पसीना  ,  महल   गैरों   के  बनाता  हूँ ।
लहू  को  बेचकर ,  दो   वक्त   की , रोटी  कमाता हूँ ।

कुशल हूं  फिक्र  मत  करना , व्यवस्थाओं  की नेमत  है ,
क़फ़न  को  बेचकर  पीलूँ , नहीं  ग़म  पास  लाता  हूँ ।

मनाकर  नाम  पर  मेरे , कोई  दिन  क्या  दिखाते  हो ?
लिखो किस्मत स्वयं अपनी ,भला ये  क्या सिखाते हो ?

तिजौरी  में  तुम्हारी  बंद  , सदियों  से  मेरी  किस्मत ,
न  जाने  कौन-से , मुंह  से  ,भला  नजरें  मिलाते  हो ?
- मीनू कौशिक 'तेजस्विनी', दिल्ली 
 

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